उषा और हरवीर सिंह नेहवाल की बिटिया सानिया की ये बायोपिक कुछ कुछ वैसी ही है जैसी निर्देशक नीरज पांडे ने महेंद्र सिंह धोनी के गौरव गान के लिए बनाई थी, उनकी अनटोल्ड स्टोरी के नाम से। फिल्म में वह सब कुछ है जो धोनी ने दिखाना चाहा। ऐसा कुछ भी नहीं है जो धोनी को धोनी बनाने वालों ने देखना चाहा। एक बायोपिक को बनाने का उद्देश्य ही उसके भविष्य में याद रह जाने और न रह जाने लायक सिनेमा के बीच की लकीर बनता है। फिल्म में वह कुछ नहीं है जिसके चलते सानिया कई बार सुर्खियों में रहीं। सानिया नेहवाल की ये बायोपिक एक ब्रांडिग एक्सरसाइज है लेकिन इसके बाद भी इस फिल्म का वह हिस्सा अद्भुत है जिसमें साइना अभी बच्ची ही होती है।
साइना नेहवाल पर बनी फिल्म ‘साइना’ का पहला हिस्सा जिसमें उनका किरदार एक असल बैडमिंटन खिलाड़ी नायशा ने निभाया है, कमाल का है। उनकी सर्विस, उनका साइड लाइन के बीच में बिजली सा इधर से उधर चमकना, नेट के पास से शटल को पकड़ना और दूसरी तरफ से बनी वॉली पर स्मैश मारना, उनका हर स्टांस सांसें रोक देने वाला है। लगता ही नहीं कि आप फिल्म देख रहे हैं। बायोपिक असल में यही होती है। मन करता है कि बस साइना बड़ी न हो और बड़ी भी हो तो बस ऐसे ही खेलते हुए बड़ी हो जाए। लेकिन ये हिंदी सिनेमा है। यहां हीरो या हीरोइन बिना फिल्म कम ही सोची जाती है। फिल्म में परिणीति आती हैं। लोगों की उम्मीदें बुझने सी लगती हैं। लेकिन, परिणीति ने मेहनत में कसर नहीं छोड़ी है। बस, मामला ही यहां भी उनकी पहुंच के बाहर का ही है।
परिणीति चोपड़ा एक बेहतरीन अदाकारा बनते बनते रह गईं कलाकार हैं। यशराज फिल्म्स ने जिस हीरोइन को लॉन्च किया हो, हिंदी सिनेमा में उसका अवसान यूं महीने भर के भीतर एक के बाद एक तीन फिल्मों ‘द गर्ल ऑन द ट्रेन’, ‘संदीप औऱ पिंकी फरार’ और ‘साइना’ में हो जाएगा, किसने सोचा होगा। परिणीति अफलातून इंसान हैं। कलाकार भी वह हरफनमौना हैं। शूटिंग सेट पर भी उनमें अपना सरनेम चोपड़ा होने का एहसास दिखता है। इंटरव्यू आदि के समय वह बढ़िया अभिनय करती हैं। स्वैग भी पूरा दिखाती हैं। बस वैसा नैचुरल स्वैग कैमरे के सामने उनसे हो नहीं पाता। हालांकि, फिल्म ‘साइना’ सिर्फ उनकी ही मौजूदगी से लड़खड़ाती हो, ऐसा नहीं है, फिल्म की पटकथा में भी बहुत सारी बातें अमोल गुप्ते ने जानबूझकर नहीं डाली हैं।
फिल्म ‘साइना’ तकनीकी रूप से अधिकतर विभागों में एक उम्दा फिल्म दिखती है। अमितोष नागपाल के संवाद बहुत पैने और धारदार हैं। एक हरियाणवी मां के इतने बेहतरीन संवाद लिखने का उनको अच्छा फल भी मिलने वाला है। पीयूष शाह ने एक स्पोर्ट्स फिल्म के हिसाब से कैमरे की प्लेसिंग, लाइटिंग और मूवमेंट बहुत सटीक रखा है। उनका कैमरा फिल्म का एक अहम किरदार बनकर काम करता दिखता है। ऐसी ही चुस्त अंगुलियां दीपा भाटिया की भी चली हैं फिल्म की वीडियो एडीटिंग मे। साउंड डिजाइन और संगीत के मामले में फिल्म कमजोर है। अमाल मलिक फिल्म के संगीतकार है, लेकिन फिल्म की आत्मा को दर्शक सीधा मन से महसूस कर सकें, ऐसा कोई गाना फिल्म में बन नहीं पाया है।