मुंबई, 04 नवम्बर, (न्यूज़ हेल्पलाइन)। मद्रास हाईकोर्ट ने कहा है कि भारतीय विवाह प्रणाली को पुरुष वर्चस्व की सोच से मुक्त होकर समानता और आपसी सम्मान के साथ आगे बढ़ना चाहिए। अदालत ने स्पष्ट किया कि शादी किसी पुरुष को पत्नी पर निर्विवाद अधिकार नहीं देती और पतियों को यह समझना चाहिए कि महिलाओं का धैर्य उनकी सहमति नहीं होता।
जस्टिस एल. विक्टोरिया गौरी की बेंच 1965 में विवाह करने वाले एक बुजुर्ग दंपती के वैवाहिक विवाद पर सुनवाई कर रही थी। यह मामला एक महिला की याचिका से जुड़ा था, जिसके पति को आईपीसी की धारा 498ए के तहत पत्नी के प्रति क्रूरता का दोषी ठहराया गया था। 31 अक्टूबर को दिए फैसले में कोर्ट ने निचली अदालत द्वारा 80 वर्षीय व्यक्ति को बरी करने के फैसले को रद्द कर दिया। अदालत ने कहा कि खराब वैवाहिक जीवन में महिलाओं की बेमतलब की सहनशीलता ने पीढ़ियों तक पुरुषों को अपने अधिकार जताने और नियंत्रण कायम रखने का साहस दिया है।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अब समय आ गया है कि पुरुष यह समझें कि विवाह उन्हें किसी तरह का विशेषाधिकार नहीं देता। उनकी पत्नियों का आराम, सुरक्षा, जरूरतें और सम्मान वैवाहिक जीवन के गौण नहीं बल्कि प्रमुख कर्तव्य हैं। अदालत ने यह भी कहा कि कोई भी शादी अपमान को सही नहीं ठहरा सकती और महिलाओं, खासकर बुज़ुर्ग महिलाओं के धैर्य को मौन स्वीकृति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि उम्र किसी क्रूरता को पवित्र नहीं बनाती।
यह महिला उन पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व करती है जो मानसिक और भावनात्मक उत्पीड़न को अपना कर्तव्य समझती थीं। इसी सहनशीलता ने पुरुषों को पीढ़ियों तक प्रभुत्व, उपेक्षा और नियंत्रण करने की खुली छूट दी। महिला ने अदालत में बताया कि पति ने वैवाहिक जीवन के दौरान उसके साथ शारीरिक और मानसिक रूप से अत्याचार किया। उसके अवैध संबंधों का विरोध करने पर पति ने उसे पीटा, झूठे मामले में फंसाने और तलाक देने की धमकी दी। महिला ने आरोप लगाया कि पति ने पूजा के फूलदार पौधे काट दिए, देवी-देवताओं की तस्वीरें फेंक दीं और उसे पारिवारिक कार्यक्रमों में जाने से रोक दिया। 16 फरवरी 2007 को पति ने उसे भोजन और भरण-पोषण से वंचित कर दिया।
महिला ने कहा कि उसके लिए अलग रसोई बना दी गई थी, पति ने चाकू से हमला करने की कोशिश की, जिससे वह खुद को कमरे में बंद करके बची। बाद में पति के परिवार ने उसे खाने में जहर देने की धमकी दी। इन सब घटनाओं के बाद महिला ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। निचली अदालत ने पति को दोषी ठहराया था, लेकिन बाद में यह फैसला इस आधार पर पलट दिया गया कि कोई प्रत्यक्ष गवाह नहीं था और सबूत सुनी-सुनाई बातों पर आधारित थे। हालांकि, हाईकोर्ट ने यह मानते हुए कि मानसिक और भावनात्मक क्रूरता भी अपराध है, पति को दोषी ठहराया और छह महीने की जेल के साथ पांच हजार रुपये जुर्माने की सजा सुनाई। जुर्माना न देने पर एक महीने की अतिरिक्त कैद का आदेश दिया गया।